रक्षा बंधन - एक अध्ययन

 रक्षा बंधन - एक अध्ययन

डॉ. सुधांशु शेखर मिश्रा, पाटनागढ़

आज हमारे देश में प्राचीन संस्कृति की स्मृति स्वरूप अनेक पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। हर वर्ष विविध उत्सवों की पुनरावृत्ति उज्ज्वल भविष्य की आशा को मजबूत करती है। विश्व के कई धार्मिक एवं सांस्कृतिक उत्सव और प्रथाएँ अनेक समस्याओं को हल्का करती हैं। रक्षाबंधन सभी पर्वों में सबसे अलग है। क्योंकि यदि इसकी सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह मानव मूल्यबोध की सुरक्षा करते हुए परस्पर स्नेह, सहयोग और सद्भावना को बनाए रखने में विशेष भूमिका निभाता है। यह पर्व श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। समय के साथ इसमें कई परंपराएँ और चलन जुड़े हैं, जैसे- श्रावणी कर्म, हयग्रीव जयंती, संस्कृत दिवस, वैष्णव मंदिरों में झूलन उत्सव, अमरनाथ दर्शन आदि।

श्रावणी उपाकर्म
रक्षाबंधन के दिन श्रावणी उपाकर्म के अवसर पर नीचे दिए गए पाँच विषयों का पालन किया जाता है:

(1) पाप की सूची:
इस दिन पापों की एक सूची बनाई जाती है और उन्हें न करने का संकल्प लिया जाता है। इसलिए इसे पुण्यदायक व्रत या "विष तोड़क" भी कहा जाता है।

(2) पूर्वजों का वर्णन:
समाज के लिए विशेष आदर्श स्थापित करने वाले महापुरुषों की प्रशंसा की जाती है और उनके जैसे आदर्श, चरित्रवान एवं दिव्य गुणों से युक्त बनने का संकल्प लिया जाता है।

(3) शिव संकल्प:
इस दिन परमात्मा की स्मृति के साथ मन में विश्व कल्याण हेतु अपनी तन, मन व धन समर्पित करने का दृढ़ संकल्प लिया जाता है।

(4) यज्ञोपवीत प्रदान:
इस दिन द्विजों को यज्ञोपवीत (जनेऊ) प्रदान किया जाता है। द्विज कौन है? संस्कार से द्विज कहा जाता है। जिसके कुसंस्कार दूर हो चुके हैं, वही द्विज है। यज्ञोपवीत दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है अपने संस्कार को दिव्य बनाकर गढ़ने का महा संकल्प। इसके बिना द्विज का अगले चरण ब्राह्मण पद प्राप्त करना संभव नहीं होता।
जैसा कहा गया है—
"जन्मना जायते शूद्रः, वेद्याभ्यासे भवेत् विप्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते, ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः।"

(5) बच्चों का शिक्षा आरंभ:
वैदिक मतानुसार इस दिन छोटे बच्चों की शिक्षा का श्रीगणेश किया जाता है। ब्राह्मण बच्चे का हाथ पकड़ कर खड़ियां की सहायता से स्लेट पर "ओम" शब्द लिखते हैं।

रक्षाबंधन का पौराणिक महत्व
पौराणिक ग्रंथों में रक्षाबंधन उत्सव का अनेक महिमा का वर्णन है, जैसे—
"सर्व रोग उपशमनं सर्व अशुभ विनाशनम्।
सुकृत कृतेनाब्दमेकम् येन रक्षा कृता भवेत्।"

अर्थ:
रक्षा सूत्र बांधने से सभी रोग दूर हो जाते हैं; सभी अशुभ कर्म विलीन हो जाते हैं। वर्ष में एक बार इस पर्व के पालन से मनुष्य की रक्षा होती है। रक्षा सूत्र बांधने के समय ब्राह्मण निम्न श्लोक पढ़ता है—
"येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्र महाबलः।
तेन त्वां प्रति बद्धामि रक्षे मा चल मा चल।"

यहां स्पष्ट कहा गया है कि तुम्हें भी मैं वही रक्षी बांध रहा हूँ; तुम चंचल न हो, अचल रहो। तात्पर्य है— तुम पवित्रता के मार्ग से विचलित न हो; ब्रह्मचर्य की राह से भ्रष्ट न हो।

स्व व देश रक्षा का पर्व—रक्षाबंधन
रक्षाबंधन शब्द इंगित करता है कि यह सुरक्षा के लिए ही बंधन है। हर व्यक्ति के जीवन में लगाम रहना चाहिए। बिना लगाम के जीवन का अंतिम परिणाम अत्यंत दुखद और भयावह होता है। आमतौर पर "बंधन" शब्द दुःखकारक अर्थ में प्रचलित है। यह बंधन दो प्रकार का होता है—

ईश्वर की मर्यादा रूपी बंधन;

आसुरी उच्छृंखलता रूपी बंधन।

व्यक्ति, वस्तु व ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति ही इसका कारण है। आसुरी प्रवृत्तियों को ईश्वर की मर्यादा की श्रृंखला में बांधना ही रक्षाबंधन है। यह स्व व राष्ट्र के लिए कल्याणकारी व सुखदायक है।

दूसरे अर्थ में, ईश्वर के प्रति अनुराग का यह एक सुखद बंधन है। जैसे अंकुश से हाथी, लगाम से घोड़ा, नथ से बैल को नियंत्रित किया जाता है, उसी तरह जीवन ईश्वरीय मर्यादा रूपी बंधन में बंधे रहने पर व्यक्ति दुखदायी आसुरी तत्वों से बचा रहता है।

रक्षा सूत्र—नारी संरक्षण का प्रतीक
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से रक्षाबंधन का तात्पर्य महत्वपूर्ण है। मुगल शासनकाल में अत्याचारी मुस्लिम सत्ता द्वारा हिन्दू नारियों की अनमोल संपदा—पवित्रता—का हनन होता था। ऐसे अंधकारमय काल में रक्षा सूत्र नारी संरक्षण के एक अमोघ अस्त्र रूप में कार्य करता था।

उदाहरण—

गुजरात के सुल्तान फिरोजशाह ने जब राजा मानसिंह द्वारा शासित नागौर किले पर हमला किया, तब मानसिंह की पुत्री ने अरिकेन के राजा उम्मेदसिंह को राखी भेजी।

महारानी पद्मिनी ने हुमायूं को राखी बांधी थी।

इसी समय से शायद बहनों द्वारा भाइयों को राखी बांधने की परंपरा शुरू हुई।

सतधर्म का सूचक—राखी
जो व्यक्ति को धारण करता है, वही धर्म है—"धारयति इति धर्मः"। सत्य, शांति, दया, क्षमा आदि सद्गुणों से व्यक्ति का आत्मिक कल्याण होता है; यही आत्मा का स्वधर्म है। धर्म ही व्यक्ति की रक्षा करता है।

किंतु देह अभिमान के कारण इंसान स्वधर्म भूल गया है। आज कामनाओं के वशीभूत होकर ईश्वर के नाम पर जो विभिन्न अनुष्ठान करता है, उसे ही धर्म का नाम दे देता है। किंतु कामना दोष से दूषित होने के कारण वह आत्म कल्याण के विपरीत है। राखी व्यक्ति को सतधर्म के प्रति जागरूक करती है। यह पर्व समाज को श्रेष्ठ संदेश देता है कि व्यक्ति जीवन में श्रेष्ठ, शक्तिशाली, शांतिपूर्ण, सुखमय और सर्वदा सुरक्षित रहने के लिए मन, वचन, और कर्तव्य के प्रति सतर्क रहे। मानसिक विकारों के त्याग के बिना धर्म मार्ग पर चलना संभव नहीं है। हत्या, लूट, बलात्कार आदि का मूलोच्छेदन जब तक नहीं होता, तब तक सुरक्षित समाज की कल्पना अधूरी है। आत्मा अपनी स्वतंत्रता और स्वराज्य खो रही है। इसलिए उसे परमात्मा से "सुरक्षा" चाहिए, जिससे परमात्मा उसे पवित्रता के बंधन में बांधते हैं।

रक्षाबंधन—पवित्रता का प्रतीक
कमल के फूल को पवित्रता का प्रतीक माना गया है। उसकी निर्लिप्तता ही उसे पवित्र बनाती है और देव पूजन में उपयुक्त बनाती है। मनुष्य भी विषय-विकार रूपी कीचड़ में घिरा न रहे तो देव पद पाने योग्य हो सकता है। इसी दृष्टि से राखी का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। विद्युत स्रोत के बिना तार में बिजली नहीं दौड़ती। राखी को केवल धागा मानेंगे तो उससे कोई सुखद परिणाम नहीं मिलेगा। बहन राखी बंधवाकर अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए भाई को वचनबद्ध करती है। यह परोक्ष रूप से संकेत करता है कि उसका भाई किसी दूसरी बहन की पवित्रता के हनन का कारण न बने। बहन जब ब्याह के बाद ससुराल चली जाती है, तो उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व पति पर आ जाता है। भाई चाहे भी तो बहन को हमेशा सुरक्षा नहीं दे सकता। इसलिए हर भाई को अपनी पड़ोस, गाँव या समाज की सभी बहनों को अपनी मानकर उनकी पवित्रता की रक्षा का दायित्व लेना चाहिए—तभी इस पर्व का सही उद्देश्य पूरा होगा। राखी भावना का प्रतीक है। विचार परिवर्तन द्वारा ही विश्व में परिवर्तन संभव है।

राखी—परमात्मा स्नेह का सूत्र
वर्तमान कलियुग के अंतिम काल में परमात्मा प्रजापिता ब्रह्मा के शरीर में अवतरित होकर आगामी सत्ययुग की नींव रखते हैं। आज इंसान विषय-विकार के सागर में डूबता जा रहा है। यही जीव नरक है। अपने प्रिय संतान के दुःख को सह न पाने वाले करुणानिधान परमात्मा परमधाम से पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। वे माता व कन्याओं को ज्ञान कलश प्रदान कर उनके माध्यम से स्नेह का प्रतीक स्वरूप रक्षा सूत्र प्रदान करते हैं और सम्पूर्ण मानव समाज को आमंत्रित करते हैं—"नरक को स्वर्ग बनाओ। पवित्र बनो। योगी बनो।" स्वयं व दूसरों को देह दृष्टि से नहीं, आत्मिक दृष्टि से देखो; तुम सब मेरे संतान हो, परस्पर भाई हो।

आज की परिस्थिति में रक्षाबंधन
आज के विश्व परिदृश्य में देखा जाए तो रक्षाबंधन पर्व अपना उद्देश्य साधने में सफल नहीं रहा है। आज नारी असुरक्षित है। भारतीय संस्कृति में नारी को देवी का स्थान प्राप्त होता था — "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रम्यते तत्र देवता।" आज यह बात लोग भूल गए। एक समय सीता के हरण पर रावण का राज्य ध्वस्त हुआ था; द्रौपदी के चीरहरण की सजा के रूप में कौरव वंश का नाश हुआ था। लेकिन आज भारत में प्रतिदिन हजारों सीता हरण होती हैं, द्रौपदियाँ अपमानित होती हैं, फिर भी समाज मूक दर्शक बना रहता है। इसका दोष केवल नारी नहीं, पुरुष भी आज खुद को असहाय और असुरक्षित मानता है। वह खुद ही मानसिक विकारों से पीड़ित है। उसका शौर्य, वीर्य, ओज, तेज, पराक्रम, बल, शरीर सब क्षीण हो गया है। आज की स्थिति में व्यक्ति न केवल दूसरों को, बल्कि खुद को भी बचाने की शक्ति खो चुका है। वह स्वयं ही अपने दुश्मन बन गया है।
गीता कहती है— "मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु या मित्र है। यदि वह स्वयं न चाहे, तो उसे कोई बचा नहीं सकता। असक्त मन आत्मा का मित्र है; विषयासक्त मन उसका शत्रु। जो अपने मन को वश में कर लेता है, वह मित्र है; अन्यथा शत्रु।"
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।"
गीता-6/5-6
मनुष्य के लिए मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। मन इंद्रिय-भोग, विषय-वस्तुओं में उलझा रहे तो वह बंधन है; उनसे दूर रहे तो मुक्ति है—
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।"

सही ज्ञान के अभाव में रक्षाबंधन केवल एक परंपरागत उत्सव बनकर रह गया है। व्यक्ति अज्ञानता में धीरे-धीरे स्वार्थी होता जा रहा है। इसलिए परमात्मा पृथ्वी पर अवतरित होकर दिव्य ज्ञान देते हैं। मानसिक विकारों से मुक्ति के लिए मानव समाज को राजयोग की शिक्षा देते हैं। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति का विचार बदलता है। जैसा विचार, वैसे ही विश्व की परिस्थितियाँ सुखद या दुखद होती हैं। इस संदर्भ में मन में यह विचार दृढ़ करना चाहिए कि जाति, वर्ण, धर्म, आयु, लिंग की भेदभाव छोड़कर हम सभी एक पिता परमात्मा के संतान हैं—आत्मा से सब भाई हैं। यही दिव्य भावना जगाने के लिए बहनें भाइयों को राखी बांधती हैं।

ॐ शांति।

संपर्क:
सम्पादक, चेतना प्रवाह, शिव-शक्ति होमियो सेवा सदन, पाटनागढ़-767025
जिला: बलांगीर, मोबाइल नंबर- 9437210296, 7609969796

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